राजपूत समाज में विधवा
पुनर्विवाह क्या एक समाधान ?
राजपूत समाज में विधवा विवाह बहुत ही संवेन्दंशील
मुद्दा है जिस पर आजकल बहस छिड़ि हुई है। मेरे द्वारा ये आलेख एक विचार हो सकते है न की किसी पर इनको मानने का दबाव है चाहे वो
सगे संबंधी हो मित्र हो या समाज । और व्यक्तिगत कोई विधवा पुनर्विवाह को स्वीकार
भी करती है तो उससे कोई आपत्ति नहीं हैं। क्यूकी ये किसी का भी निजी फेसला हो सकता
है। मुझ स्वयं के इस बारे में क्या विचार है उन्हे इस आलेख में लिख रही हूँ।
विधवा से आशय जिस महिला के पति का विवाह के पश्चात देहांत
हो जाता है और उसको वैधव्य जीवन जीना है। चाहे वो जीवन आयु की कोई भी अवस्था हो
चाहे बाल अवस्था यौवनवस्था वृद्धावस्था में विधवापन । लेकिन इस विधवा अवस्था को घृणित
दृष्टि से देखना ही सरासर गलत है। जिसकी
वजह से पुनर्विवाह जेसे कदम उठाए जा रहे हैं। किसी विधवा के साथ अनुचित अत्याचार को करना एक गलत प्रथा है। चूंकि
अब हमे ये गलत प्रथाएँ सही मे गलत नजर आ रही हैं तो इसका एक ही उपाय दिखता है की
विधवा का पुनर्विवाह कर दिया जाये क्यूकी
हम गलत प्रथा (अत्याचार ) को हम रोकने में
स्वयम को असमर्थ मान रहे है क्यों?
एक समाज का व्यक्तित्व बिलकुल साफ बना हुआ होता है
उसके कुछ संस्कार और नीतीया होती है। लेकिन ये कुरीतिया या गलत प्रथाये इतनी अधिक
हावी हो जाती है कि वो समाज कि मुख्य बुरी विषशता मान ली जाती है।
अब विवाह और पुनर्विवाह की बात करती हूँ – अग्नि के
समक्ष सात फेरे लेकर सात वचनो की कसम खाकर
विवाह होना हिन्दू धर्म में विवाह कहा गया है जो आज भी मान्य है ।
पुनर्विवाह में किसी वजह से पहले विवाह के पति की
मृत्यु होना या तलाक होने के उपरांत दूसरे व्यक्ति के साथ बिना फेरो के बिना सात
वचन लिए विवाह में बंध जाना पुनर्विवाह है।
मेरे कहने का तात्पर्य है कि पुनर्विवाह मे तो ये
विवाह ही अनुचित है जिसमे कोई वचन नहीं कोई साक्षी नहीं। हालांकि अन्य जातियों में
पुनर्विवाह को स्वीकरत कर लिया गया है लेकिन क्या उसके दुष्परिणाम हमे नज़र नहीं आ
रहे?
विधवा पुनर्विवाह होना क्षात्र धर्म मे निषेद है। लेकिन आज का युग इसको एक
कुरीति मान कर नकारना चाह रहा है। क्यों? या तो वो क्षात्र
धर्म को अनुचित मान रहे है हैं या शायद आज के इस वैज्ञानिक और आधुनिक युग में ये
एक कुरीति है। लेकिन मुख्य कारण एक विधवा के साथ हो रहे इसकी आड़ में प्रतारणा ही
है । क्षात्र धर्म में प्रतारणा का उल्लेख नहीं है बल्कि ये प्रतारणा हमारी बनाई
गई हैं। जिससे बचाने के लिए विधवा विवाह
को समर्थन दे रहे हैं।
विधवा होना एक महिला के लिए बहुत असहनीय मानसिक वेदना
होती है। अगर वो पति के साथ एक सम्मानित
पारिवारिक जीवन जी रही होती है और जहां
तक मेरा मानना है की विधवा की स्थिति में
उसका पर्यायी या समान स्थिति केसे दूसरे पति से अपेक्षित है। इसीलिए उसको सबसे पहले विधवा की मानसिक
वेदना से उबारना जरूरी है। न कि दूसरा विवाह करना । जिसमे कि वो अपने मृत पति के
साथ बिताए जीवन को याद तो कर सके। जो कि शायद दूसरे पति के साथ याद करने कि भी
आज़ादी नहो ।
इस एहसास से कोई अनभिज्ञ नहीं है कि अकेले ज़िंदगी
गुजरना बहुत कठिन होता है लेकिन घर बदल बदल कर
ज़िंदगी कोई ज़िंदगी नहीं है। सबसे बड़ी बात तो ये है की एक विधवा की जिम्मेदारियों
से बचने के लिए उसका पुनर्विवाह करके ये बोझ दूसरे सिर मढ़ कर निश्चिंत होना चाहते
हैं लेकिन तब क्या उन्हे हमेशा संदेह नहीं रहता की वह वहाँ पहले जेसा सम्मानजनक या
सुखी जीवन बिता रही होगी की नहीं। हाँ उसको भले ही पहले से भी ज्यादा सहन करने की
सीमा और बढ़नी पड़ेगी। मेरे विचार से तो उसको बोझ न समझे बल्कि उसको इस काबिल बनाया
जाये की वो स्वयं इज्ज़त से अपना जीवन यापन करे । और ये पहली आवश्यक प्राथमिकता
होनी चाहिए।
विधवा पुनर्विवाह के बजाय स्त्री को एक सम्मानित जीवन
बिताने लायक बनाने में सबका समर्थन व सहयोग होना चाहिए न की पंगु समान जीवन बिताने
में सहयोग । उसका आत्मविश्वास बदेगा और अपनी खुद की स्थिति
को समझेगी तो उसके लिए बेहतर निर्णय भी ले सकेगी फिर वो इस काबिल होगी की अपने
निर्णय में किसी के समर्थन की उसको आवश्यकता नहीं होगी।
जब कोई विधवा पुनर्विवाह के लिए उसकी रजामंदी देती है
तो उसके पीछे उसकी क्या भावनाए हो सकती है? इस हाँ के पीछे
उसकी मजबूरी होती है क्यूकी उसको एहसास होता है कि वो दूसरों पर बोझ है और उसकी
हाँ में वो उन लोगों को राहत देना चाह रही है क्यूकी उनकी परेशानी उससे छिपी नहीं
है मुख्य इसी वजह से वो पुनर्विवाह को कुबूल करती है।
मुझे इस से भी इंकार नहीं है की किसी भी महिला के मन
में एक सुखी दाम्पत्य जीवन जीने की इच्छा होती है। उसके भी सुखी संसार हो संतान हो
जिस पर वो स्नेह और ममता लुटाये। हाँ अगर ये संसार अग्नि के समक्ष लिए गए सात फेरो
से हुए विवाह द्वारा मिलता है तो वास्तव मे सुखी संसार है वरना पुनर्विवाह का तो
खुद का ही आस्तित्व नहीं तो उस संसार से क्या महिला सही में सुखी होगी? हालांकि कुछ अपवाद हो सकते हैं।
विधवा का सम्मान हो मुद्दा ये होना चाहिए मापदंड इसके
तय करने चाहिए। लेकिन उसको प्रतारित करके कोई उसको सम्मान केसे दे सकता है। इसीलिए
विधवा की जो जीवन चर्या होती है और जिन मानसिक वेदनाओं से उसको गुजरना पड़ता है
उसको कम किया जाये सुधार उसमे किया जाये। एक सामान्य जीवन शेली जीने में उसकी मदद
की जाये।
अगर ये समाज स्वाभिमान से जीने में एक विधवा की मदद करे तो
उसमे आत्मविश्वास पैदा होगा और इज्ज़त से अपने पेरों पर खड़ी होकर जीवनयापन
करे। समाज कि कुछ एसी महिलाओ से मेरा संपर्क हुआ है जो विधवा हैं कठिनाइयो से
हालातो कि मुश्किलों से जूझते देखा है उनको लेकिन फिर भी वो खुद कि आत्मनिर्भरता
से सम्मानित जीवनयापन कर रही है और पूरे परिवार को भी संभाल रही हैं। और मुश्किले
या कठिनाइया किसके जीवन मे नहीं होती एक
सामान्य विवाहित स्त्री को भी मुश्किले देखनी पड़ती हैं कई बार।
मानलेते हैं की समस्या का समाधान मान कर एक विधवा का
पुनर्विवाह हो जाता है और दुर्भाग्यवश दुबारा ये हादसा उसके साथ हो जाता है तब? क्या तीसरी बार उसका विवाह किया जाएगा? तो क्या
किसी महिला का उसके पति कि मृत्यु के उपरांत एक के बाद एक घर बदलना ही उसकी नियति है। क्या वो खुद का आंकलन
करने कि स्थिति मे भी रहेगी?
नहीं? और एक स्त्री
का संबंध या जिम्मेदारियाँ सिर्फ अपने पति के अलावा परिवार के किसी अन्य सदस्य के
लिए नहीं है जब तक सधवा है तब तक ही उस परिवार कि है विधवा होते ही वो दूसरे घर को
चली !!!
दहेज प्रथा , बाल विवाह व
शराब खोरी आदि ये समाज कि बुराइयाँ व गलत प्रथाएँ हैं जिनहे समाज कि पहचान मान
लिया जाता है और इनहि वजह से परिवार विघटन, तलाक व
पुनर्विवाह जेसे कदम उठाने पड़ते हैं। ये सही है कि विवाह के कुछ दिनो बाद ही लड़की
विधवा हो जाती है या बचपन मे ही विवाह होना और बाद मे बाल विधवा हो जाना और जिनके कोई संतान भी नहीं
है अगर एसे में पुनर्विवाह हो तो उचित हो सकता है। लेकिन तब उसके विवाह या
पुनर्विवाह का निर्णय उसके सास ससुर करते हैं तो ये एक अलग दृष्टिकोण बन सकता है।
किसी माँ बाप के एक पुत्र हो और उस पुत्र कि उसके
विवाह के कुछ दिनो बाद ही मृत्यु हो जाती
है तो जीवन में एक पुत्रवधू का कर्तव्य नहीं है क्या? उनका सहारा बनने कि या वो अपने दिवंगत पति के कर्तव्यो का पालन नहीं कर
सकती क्या?
बाल विवाह , धोखे से विवाह
होना आदि एक अलग बात है जो दूसरों कि गलती है और ये गलतिया सुधरी जा सकती है । पर
एक स्वस्थ विवाह के बाद कोई स्त्री विधवा कि स्थिति मे इन परम्पराओं को बखूबी निभा
नहीं सकती क्या? क्या वो पर्याय नहीं अपने मृत पति कि
जिम्मेदारियो को निभा सके और माता पिता का सहारा बन सके। पति कि मृत्यु के बाद
स्त्री अपने बच्चो का भी तो सहारा बनती ही है। जिस परिवार के पुत्र का निधन हो उस
कि मानसिक वेदना का कोई छोर नहीं होता एसी बुरी स्थिति में क्या स्त्री का काम
दुबारा शादी करके घर बदलना ही है?
आज के समय में स्त्री को समान अधिकार मिले हुए हैं
चाहे वो शिक्षा हो या संपती हो महिलाए खुद को कमजोर और लाचार कहलाना पसंद नहीं
करती तो हम उसको इस कमजोरी का एहसास दिला कर सुरक्षा के नाम पर दूसरे खूँटे से
बांधने कि कोशिश कर रहे हैं।
महिलाओं पर अत्याचार शहर और गाँव दोनों जगह है बस ढंग
अलग अलग है अत्याचार के। और शहरी महिलाओं के साथ साथ गाँव कि महिलाओं मे भी जागृति
आई हैं। और कई केसेस हम आए दिन जानते है कि कितनी महिलाए अपना निर्णय लेने का साहस
दिखा चुकी हैं। महिला कमजोर नहीं है बस उन्हे सपोर्ट कि आवश्यकता है न कि कमजोरी
का एहसास बनाए रखने कि ।
संक्षेप में
यही कहना है-
एक विधवा कि जीवन चर्या या शेली में उसको जिन मानसिक
वेदनाओ से गुजरना पड़ता है सामान्य कि नज़र
मे वो प्रतारणा ही है क्या उसमे सुधार
नहीं किया जा सकता?
एक माता पिता
के लिए विधवा पुत्री का दुख बहुत बड़ा दुख होता है इस दुख को कम करने के लिए और भी
प्रयत्न किया जा सकते जिससे कोई विधवा एक स्वाभिमान से अपना जीवन व्यतीत कर सके।
उसको सक्षम बनाया जाये कि वो आत्मनिर्भर होकर इज्ज़त से जी सके इसमे कोई सहयोग का
साहस नहीं दिखा सकता?
माना कि अकेले ज़िंदगी गुजरना बहुत मुश्किल होता है एक
विधवा के लिए लेकिन इसके लिए घर बदलना समाधान नहीं।
एसे बहुत कम केसेस हैं कि विधवा पुनर्विवाह के बाद
सुखी जीवन उनके हिस्से में होता है। वरना पुनर्विवाह के बाद उस महिला को सभी जगह
समझोता करना और दबाव में रहना पड़ता है और
वो सिर्फ अपनी तकदीर मान कर जीवन गुजारती है।
मेरा बस यही कहना है कि विधवा पुनर्विवाह के बजाय
स्त्री को एक सम्मानित जीवन बिताने लायक बनाने में सबका समर्थन होना चाहिए। उसका
आत्मविश्वास बढ़ेगा और अपनी खुद कि स्थिति को समझेगी तो उसके लिए बेहतर निर्णय भी
वो ले सकेगी।
बहुत ही अजीब सी बात है कि आज हमारा राजपूत समाज दूसरी
जातियो (आदिवासी व गुमनाम जातियो ) कि प्रथाओ से
प्रभावित हो रहा है और अपने इतिहास
कि गौरव गाथाओ को सिरे से खारिज कर रहा है। ये बहुत ही उपहास का विषय बनने वाला है
दूसरों के लिए।
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अल्पना जी एक महिला ही इस बात को समाज के सामने रख सकती है! और आपने इस लेख और इस विषये को सार्थक साबित कर दिया है!
ReplyDeleteराजपूतों मे विधवा विवाह की दर 0.000001% से भी कम ही है , जो होता है उसमे सिर्फ माँ-बाप और लड़की की ही सहमति होती होगी वरना समाज के लोगों का उसमे किसी भी तरह का समर्थन नहीं होता।
ReplyDeleteपुनः विवाह कोई समाधान नहीं है. जरुरत है महिला सशक्तिकरण की.
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति है सा इस बात पर और एक बात और जो में कहना चाहता हु यदि महिलाये क्षात्र परम्परा का पालन करेंगी तो वह कभी भी अपने आपको विधवा होने से बचाए रखेगी. जिसमे महीलाओ व् बालिकाओ द्वारा एक महान कार्य जो वे सब पहले करती थी और आज नहीं करती है | वो है मन्त्र जाप मंत्र मन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। मंत्र में मन का अर्थ है मनन करना अथवा ध्यानस्त होना तथा त्र का अर्थ है रक्षा। इस प्रकार मंत्र का अर्थ है ऐसा मनन करना जो मनन करने वाले की रक्षा कर सके। अर्थात मन्त्र के उच्चारण या मनन से मनुष्य की रक्षा होती है। और वो मन्त्र है महामृत्युन्जय मन्त्र का जप और वह कुछ इस तरह से है
ReplyDeleteॐ त्रयम्बकम यजामहे सुगंधिम पुष्टिवर्धनम |
उर्व्वारुकमिव बन्धनात म्रत्योर्मुक्षीय माम्रतात ||
ॐ त्रयम्बकम यजामहे सुगंधिम पति वेदनम |
उर्व्वारुकमिव बन्धनात दितो मुक्षीय माम्रतात || (यजु - ३/60)
उपयुक्त मन्त्र से भी यह स्पस्ट है तथा परम्परा भी यही रही है की क्षत्रानिया हमेशा सदाशिव की ही उपासक रही है सदाशिव सारे संसार के गुरु है और क्षत्रानिया गुरु रूप में अपने पति को प्राप्त करने के लिए सदा से भगवान सदाशिव की उपासना करती है |
उपर्युक्त मंत्र कितना प्रभाव शाली है इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है की इस मंत्र के दो खंडो में से जो पहला खंड है वही महामृतुन्जय मंत्र कहलाता है| जब किसी व्यक्ति के भयानक मृत्यु का योग हो उस समय उसकी प्राण रक्षा के लिए इसके जप किये जाते है | अब आप कल्पना कीजिये की जिस परिवार की प्रत्येक स्त्री, पुत्री , माता व् बहिन आदि प्रतिदिन इस मंत्र का जप करे और जीवन पर्यन्त करे , उनके परिवार जनो से क्या कोई कर्मक्षेत्र व युद्ध क्षेत्र में लोहा लेने का साहस कर सकता है|
यही कहना है की क्षत्रियो के शोये व पराक्रम के महान इतिहास के पिछे उनकी धर्म प्राण तपस्वी पुत्रियों, पत्नियों व् माताओ का ही महान योगदान रहा है|
विधवा विवाह अगर राजपूतों ने करना शुरू किया तो दूसरी कास्ट क्या करेगी
ReplyDeleteराजपूत समाज में विधवाओं की स्थिति अन्य जातियों की अपेक्षा हमेशा अच्छी रही है जिसे कर्नल टॉड सहित विभिन्न इतिहासकारों ने भी माना है और हमने अपनी आँखों से देखा है व देख रहे है और हमें गर्व है कि हमारे समाज में आज भी पुरानी परम्परा कायम रखते हुए विधवा का सम्मान किया जाता है ! कुछ मामले विपरीत हो सकते है जो नगण्य है !
ReplyDeleteविधवा विवाह पर आपके विचारों से सहमत ! हमें विधवा पर पुनर्विवाह थोपने के बजाय उसका सशक्तिकरण पर ध्यान देना चाहिए हालाँकि क्षत्रिय महिलाएं सशक्त होती है !!
राजपूत समाज आज विधवाओं की मदद करता है, प्रथम पीहर पक्ष मजबूती से सहायता करता हैं, दुर्भाग्यवश मेरी बहिन के साथ भी घटना धट गई ! हमनें अपनें भांजो को शिक्षा देकर बड़ा किया उसके बाद उनकी जागीरी उनसें हासिल करवाई ..
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